बृहस्पति 2 (धर्मगुरु पक्का घर, गुरु
बैठा अपने/शुक्कर के घर)
(1942)
गुरु दूजे अस्थान गौ का,
ग्रहमंड माला माना है
जनम कसाई का ख्वाह होवे,
आसन ब्रह्मा माया है
दुश्मन ग्रह घर 6 ता 11,
राजा वली ख्वाह कोई हो
बृहस्पति तब भी गुरु ही
होगा, ख्वाह वो औरत ही का हो
अगर गुरु न होवे ऐसा, वही
गोबर का पुतला हो
ज़हर बिच्छू से मर्द व् औरत,
कुल अपनी को मारता हो
(1952)
ज़र व् माया गो, दान से
तेरा बढ़ता
मगर सेवा उत्तम, मुसाफिर जो
करता
राजा जनक की साधू अवस्था दानी गुरु ज़र माया हो
मंदा ग्रह जब ही कोई बैठा ज़ेर हुक्म गुरु साया हो
4 मंदा 5-10 ता 12, रद्दी रवि ख्वाह केतु हो
काम सोना मिटटी देगा, मिटटी
देती ज़र सोना हो
शुक्कर रद्दी या हो शनि
10वें, रात दुखी मंद औरत हो
कोई बैठे 8-10 ता 12,
सुखिया बच्चों ज़र दौलत हो
No comments:
Post a Comment